हजारों वर्षों से जिस नदी की धाराएँ निरंतर परिवर्तनशील रही हैं, उस नदी की धाराओं के साथ गतिशील जीवन-जगत की अनुभूतियों का अवगाहन साहित्य के माध्यम से किया जाना सचमुच न केवल दिलचस्प वरन् महत्त्वपूर्ण भी है। लेकिन विध्वंसकारी कोसी ने अपने तटवर्ती जीवन-जगत के साथ संभवत: अधिकांश साहित्यिक विरासत को भी प्राय: निगलने का काम ही किया है। कोसी अंचल के निकटवर्ती नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के विध्वंस (1197 ई.) के कारण भी इस क्षेत्र की ज्ञान और साहित्य विषयक विरासत नष्ट हुई होगी।
Wednesday, January 13, 2010
डॉ. मधुकर गंगाधर : संदर्भ और साधना
हिन्दी के प्रतिष्ठित कथाकार डॉ. मधुकर गंगाधर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित एक पुस्तक डॉ. रमेश नीलकमल ने संपादित की है, जो 2009 में मुकुल प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है। पुस्तक का नाम है : डॉ. मधुकर गंगाधर : संदर्भ और साधना। इस पुस्तक शामिल 45 आलेखों के माध्यम से मधुकर गंगाधर के व्यक्तित्व और कृतित्व के विभिन्न आयामों को सामने लाने और उनके रचनात्मक अवदान को मूल्यांकित करने का प्रयत्न किया गया है। पुस्तक में शामिल कुछ लेखकों के नाम हैं : कलक्टर सिंह केसरी, गोपी वल्लभ सहाय, गंगा प्रसाद विमल, राजेन्द्र अवस्थी, भगवतीशरण मिश्र, बलदेव वंशी, गोपेश्वर सिंह, श्याम सुंदर घोष, मधुकर सिंह, विजेन्द्र अनिल, देवशंकर नवीन, संजय कुमार सिंह, सुरेन्द्र प्रसाद जमुआर, नरेश पांडेय चकोर, कमला प्रसाद बेखबर, उदभ्रांत, रणविजय सिंह सत्यकेतु।
मधुकर गंगाधर का जन्म पूर्णिया जिले के झलारी गॉंव में 1933 ई. में हुआ था। वे उनतीस वर्ष तक ऑल इंडिया रेडियो की सेवा से जुड़े रहे। अनेक विधाओं में लेखन किया। उनकी प्रकाशित कृतियों में दस कहानी-संग्रह, आठ उपन्यास, चार कविता-संग्रह, तीन संस्मरण पुस्तकें, तीन नाठक और चार अन्य विधाओं की रचनाऍं शामिल हैं। उपन्यासों के नाम हैं-मोतियों वाले हाथ (1959), यही सच है (1963), फिर से कहो (1964), उत्तरकथा (1965), सुबह होने तक (1968), सातवीं बेटी (1976), गर्म पहलुओं वाला मकान (1981) तथा जयगाथा। कहानी-संग्रह हैं- नागरिकता के छिलके (1956), तीन रंग:तेरह चित्र (1958), हिरना की ऑंखें (1959), गर्म गोश्त:बर्फीली तासीर (1965), शेरछाप कुर्सी (1976), गॉंव कसबा नगर (1982), उठे हुए हाथ (1983), मछलियों की चीख (1983), सौ का नोट (1986) तथा बरगद (1988)।
मधुकर गंगाधर अपनी पहली कहानी 'घिरनीवाली' (योगी, साप्ताहिक, पटना) के साथ 1955 ई. में प्रकाश में आए, जो सर्विस लैट्रिन साफ करनेवाली एक खूबसूरत मेहतरानी के वैयक्तिक अंतर्विरोध पर लिखी गई थी। यह काल 'नई कहानी आंदोलन' के रूप में प्रतिष्ठित कहानियों की रचना का काल है, जिनके आधार पर सातवें दशक के पूर्वार्द्ध में 'नई कहानी' की प्रवृत्तियों को विश्लेषित, व्याख्यायित करके उसे एक कथाधारा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। उक्त कालखंड में लिखी डॉ. गंगाधर की कहानियॉं पहले 'तीन रंग : तेरह चित्र' (1958), हिरना की ऑंखें (1959) तथा 'गर्म गोश्त : बर्फीली तासीर (1959) कहानी-संग्रहों में प्रकाशित हुई थीं, जिन्हें एक साथ 'गॉंव कसबा नगर' कहानी-संग्रह में पढ़ते हुए 'नई कहानी' की नवीनता को विविध रूपों में देखा जा सकता है। डॉ. गंगाधर को मुख्यत: ग्रामीण परिवेश का रचनाकार ही माना जाता रहा है, परंतु इस संदर्भ में उनका अपना वक्तव्य यह है--''जब तक गॉंव में था, गॉंव की कहानियॉं लिखीं। शहर में रहकर यहॉं के जीवन, संघर्ष, मानसिकता से एकाकार होने पर पर शहर की कहानियॉं लिखता रहा हूँ। वस्तुत: मैं तो आदमी के संघर्ष और उसकी विजय की खोज में रहा हूँ-वह गॉंव का परिवेश हो, शहर का परिवेश हो या कस्बे का परिवेश।''
वास्तव में डॉ. मधुकर गंगाधर एक निरंतर रचनाशील व्यक्तित्व का नाम है, जिसने न केवल कहानी, वरन उपन्यास, नाटक, कविता, रेडियो रूपक, आलोचना आदि विधाओं में भी अपनी सशक्त कलम चलाई है तथा अपनी रचनात्मकता को श्रेष्ठता की कसौटी पर कसे जाने के लिए उसे मौलिक, नवीन और विशिष्ट स्वरूप में सर्वदा प्रस्तुत किया है। यही कारण है कि उनकी रचनाऍं प्रकाशित होने के साथ ही चर्चा का विषय रही हैं तथा बावजूद इसके कि वे अपने को किसी कथाधारा से संबद्ध नहीं मानते, उनकी रचनाऍं तत्कालीन समय की कथा-प्रवृत्तियों आंचलिक कहानी, नई कहानी, ग्राम कहानी, सचेतन कहानी, समांतर कहानी आदि के अंतर्गत परिगणित तथा समालोचित की जाती रही हैं।
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आपने मधुकर जी एवं उनपर इस आलोचनात्मक पुस्तक की बड़ी ही चुस्त , सारगर्भित समीक्षा लिखी है , जो गागर में सागर भरने वाली है !
ReplyDeleteकृपया इस पुस्तक (डॉ.मधुकर गंगाधर : सन्दर्भ और साधना) के प्रकाशक का पता एवं मोबाइल नंबर उपलब्ध कराने की कृपा करें |
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