हजारों वर्षों से जिस नदी की धाराएँ निरंतर परिवर्तनशील रही हैं, उस नदी की धाराओं के साथ गतिशील जीवन-जगत की अनुभूतियों का अवगाहन साहित्य के माध्यम से किया जाना सचमुच न केवल दिलचस्प वरन् महत्त्वपूर्ण भी है। लेकिन विध्वंसकारी कोसी ने अपने तटवर्ती जीवन-जगत के साथ संभवत: अधिकांश साहित्यिक विरासत को भी प्राय: निगलने का काम ही किया है। कोसी अंचल के निकटवर्ती नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के विध्वंस (1197 ई.) के कारण भी इस क्षेत्र की ज्ञान और साहित्य विषयक विरासत नष्ट हुई होगी।
Sunday, January 3, 2010
सुरेन्द्र स्निग्ध का उपन्यास 'छाड़न'
2009 में प्रतिष्ठित हिन्दी कवि और आलोचक डॉ. सुरेन्द्र स्निग्ध द्वारा लिखित उपन्यास 'छाड़न'(प्रथम संस्करण : 2005) का तीसरा संस्करण किताब महल, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया है। संप्रति पटना विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में प्रोफेसर डॉ. स्निग्ध का जन्म पूर्णिया जिले के सिंघियान नामक गॉंव में 1952 ई. में हुआ था। वे 'गॉंव घर', 'भारती', 'नई संस्कृति' नामक पत्रिकाओं के संपादन से जुड़े रहे और 'प्रगतिशील समाज' के कहानी विशेषांक और 'उन्नयन' के बिहार-कवितांक का संपादन किया। स्निग्ध जी की तीन कविता पुस्तकें-'पके धान की गंध', 'कई कई यात्राऍं' और'अग्नि की इस लपट से कैसे बचाऊँ कोमल कविता' प्रकाशित हैं। उनकी प्रकाशित आलोचना कृतियॉं हैं-'सबद सबद बहु अंतरा' तथा 'नई कविता की नई जमीन'।
'छाड़न' में कोसी नदी की छाड़न धाराओं के साथ स्थित गॉंवों की कथा कही गई है। इसके कथानक में अनेक कथाऍं अनुस्यूत हैं। ये कथाऍं भी प्रकारांतर से समय-समाज की छाड़न कथाऍं ही हैं। इन कथाओं के कोलाज में जो अंतर्धारा आरंभ से अंत तक प्रवाहित है, वह है कोसी अंचल में सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक प्रभावान्विति की अंतर्धारा। उपन्यास में 1925 ई. में गॉंधी द्वारा कोसी अंचल की यात्रा से आरंभ कर 1975 ई. तक के चित्र प्रस्तुत किए गए हैं। अंतिम कुछ चित्रों में बीसवीं सदी के अंतिम दशक की परिस्थितियों को संकेतित करने का प्रयत्न किया गया है। प्रतिष्ठित हिन्दी कवि-आलोचक श्री अरुण कमल ने लेखक को अपने एक पत्र में उपन्यास पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा है-'रेणु ने जहॉं 'मैला ऑंचल' को छोड़ा था, वहॉं से आपने आरंभ किया है...यह उपन्यास के क्षेत्र में एक नया प्रयोग है।...रिपोर्ताज, कथन, कविता, कथानक, चरित्र, राजनीति-सब मिलकर इसे एक विशिष्ट कलेवर प्रदान करते हैं। 'छाड़न' यानी नया सिक्का ढल रहा है।'
उपन्यास के आरंभ में महात्मा गॉंधी द्वारा पूर्णिया के 1925 और 1927 के तूफानी दौरे को रेखांकित किया गया है। उस समय जनता दोहरी, तिहरी गुलामी की चक्की में पिस रही थी। अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के लिए हिंसक-अहिंसक आंदोलनों का जो परिदृश्य था, उसके चित्रण के साथ-साथ लेखक ने जमींदारों के शोषण की चक्की में पिसती जनता की कथा भी सूक्ष्मता के साथ प्रस्तुत की है। अंग्रेजों और जमींदारों के खिलाफ छापामार लड़ाई लड़नेवाले गरीबों के मसीहा नछत्तर मालाकार की लड़ाई पचास वर्षों बाद पूरे इलाके में नक्सलवादी आंदोलन में परिणत हो गई और वर्तमान राजनीति किस प्रकार विचारधारा-विहीन होकर जाति, संप्रदाय, आतंक के भेंट चढ़ गई--इसकी कथा संकेतों में ही सही, लेकिन गंभीरता से उपन्यास में बयां होती है।
उपन्यास के बारे में स्वयं लेखक का कहना है कि यह उपन्यास पूरी तरह से वैचारिक आधार पर लिखा गया है, जो कोसी क्षेत्र के जनसंघर्ष और वहॉं के राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास का एक छोटा-सा संकेत है, इस पूरे क्षेत्र का लोकजीवन, पर्यावरण, संघर्ष और जिजीविषा की पड़ताल इस उपन्यास में की गई है।
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